राजस्थान के मेले एक नजर

1 राजस्थान का सबसे रगीन मेला - पुष्कर मे
2 बाणगंगा मेला - जयपुर में
3 बोहरा समाज का उर्स - गलियाकोट (डूगरपूर) यहां पर आलिमशाह की दरगाह पर उर्स भरता है।
4 जैनियो का सबसे बडा मेला -महावीर जी का मेला (हिडोन, करौली)
5 मुस्लिमो का सबसे बडा उर्स - ख्वाजा साहब का उर्स (अजमेर)
6 सिखो का सबसे बडा मेला - साहवा (चुरू)
6 आदिवासियो का सबसे बडा मेला - बेणेश्वर मेला(नवाटपुर ,डंूगरपुर) है।यह माघपूर्णिमा को लगता है।
इस मेले में आदिवासियो का परिचय सम्मेलन भी होता है।
7 मेरवाडा का सबसे बडा मेला -पुष्कर मेला हैं।
8 जांगल प्रदेश का सबसे बडा मेला - कोलायत है।
9 हाडौती प्रदेश का सबसे बडा मेला - सीताबाडी मेला (कोटा) है।
10 हिन्दू जैन सद्भाव का सबसे बडा मेला -ऋषभदेव का मेला है।
11 मत्स्य प्रदेश का सबसे बडा मेला -भतृहरि का मेला (अलवर) है।
12 साम्प्रदायिक सद्भाव का सबसे बडा मेला रामदेव जी का मेला है।
13 लालदास जी का मेला अलवर मे लगता है।
14 पीर का उर्स जालौर मे प्रसि़द्व है।
15 नागौर में हमीदुदीन नागौरी की दरगाह हैं जिसे अटारगढ की दरगाह भी कहते है।
16 घोटिया अम्बा जी का मेला बुडवा (चितौड) मे लगता है
17 राणी सती मेला झुन्झुनु मे लगता है।
18 शिवगंगा में गोतम जी का मेला लगता है।
19 चार भुजा मेला उदयपुर मे लगता है।
20 मातृकुण्डिया मेला रश्मि गांव चितौड में लगता है।
21 केसरियानाथ जी का मेला धुलेव (उदयपुर) मे लगता है।
22 महाशिवरात्रि मेला सवाईमाधोपुर में लगता है।
23 डिग्गी कल्याण जी का मेला टोंक में लगता है। यह कुष्ठ रोग निवारक देवता है।
24 शीतला माता का मेला चाकसू (जयपुर ) मे लगता है। शीतला माता को सेढल माता भी कहते है।

राजस्थान के संभाग

1 राजस्थान के पूर्ण एकीकरण के समय 26 जिले थे 26 वा जिला अजमेर था। और इसी समय 5 संभाग थे।
2 1962 मे सुखाडिया सरकार ने संभागीय व्यवस्था को समाप्त कर दिया लेकिन 1987 को हरिदेव जोशी सरकार ने राज्य
को छः सभागो जयपुर , अजमेर , कोटा , उदयपुर , बीकानेर , जोधपुर में बाटकर संभागीय व्यवस्था पुनः कायम की।
3 वर्तमान में राज्य में सात संभाग हैं। भरतपुर को सांतवा संभाग बनाने की अधिसूचना 5 फरवरी 2005 को जारी की गई।
4 जोधपुर संभाग का क्षेत्रफल सबसे ज्यादा व भरतपुर संभाग सबसे छोटा है।
5 राजस्थान का 31 वा जिला हनुमानगढ़ ( 12 जुलाई 1992) 32 वा जिला करौली ( 19 जुलाई 1997) बना।
6 राजस्थान में कुल 33 जिले हैं 26 जनवरी 2005 को प्रतापगढ 33 वा जिला बनाया गया।

राजस्थान के विश्वविद्यालय

राजस्थान का प्रथम वि.वि राजस्थान वि.वि है।
राजस्थान वि.वि देश का एकमात्र वि.वि हैं जहां पर एड्स परामशZ केन्द्र है।
राजस्थान का प्रथम कानून वि.वि. जोधपुर मे है।
राजस्थान का प्रथम संस्कृत वि.वि. जयपुर मे है।
राजस्थान का प्रथम खुला वि.वि. जोधपुर मे है।
देश का प्रथम खुला वि.वि. हैदराबाद मे खुला ।
देश का प्रथम होम्योपैथिक वि.वि. जयपुर में है।
देश का प्रथम योग वि.वि. उदयपुर में है।
देश का प्रथम जल वि.वि. अलवर में है।
वनस्थली विधापीठ टोंक में हैं जिसकी स्थापना हीरालाल शास्त्री ने 1935 में की इसका प्राचीन नाम शांति बाइ कुटीर था
बिडला इन्स्टूयूट टेक्नोलोजी सांइस पीलानी मे है।
जैन विश्वभारती लाडनू में है।
राजस्थान विधापीठ उदयपुर मे है।

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत

अशोक गहलोत का जीवन-परिचय
राजस्थान के वर्तमान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का जन्म 3 मई, 1951 को जोधपुर, राजस्थान में हुआ था. इनका संबंध राजस्थान के एक प्रमुख राजपूत समुदाय माली से है. अशोक गहलोत ने विज्ञान और लॉ में स्नातक और अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की है. वर्ष 1977 में अशोक गहलोत का विवाह सुनीता गहलोत के साथ संपन्न हुआ था. इनके दो बच्चे हैं. यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य हैं.

अशोक गहलोत का व्यक्तित्व
अशोक गहलोत स्कूली दिनों से ही समाज-सेवा और राजनीति से जुड़े रहे हैं. वह एक अच्छे राजनेता और प्रभावशाली मुख्यमंत्री हैं.

अशोक गहलोत का राजनैतिक सफर
अशोक गहलोत विद्यार्थी जीवन से ही राजनीति से जुड़ गए थे. इन्होंने अपना पहला विधान सभा चुनाव वर्ष 1980 में जोधपुर निर्वाचन क्षेत्र से जीता था. उसके बाद अशोक गहलोत ने इसी निर्वाचन क्षेत्र से 8वी, 10वीं, 11वीं, 12वीं  लोकसभा चुनावों में जीत दर्ज की थी. अशोक गहलोत प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी और पी.वी नरसिंह राव की कैबिनेट में मंत्री रह चुके हैं. इसके अलावा इन्दिरा गांधी के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए वह वर्ष 1982-1984 तक पर्यटन और नागरिक उड्डयन मंत्रालय और खेल मंत्रालय में उपमंत्री भी रह चुके हैं. इसके बाद वह राज्य मंत्री नियुक्त किए गए. केंद्रीय राज्य मंत्री के तौर पर उन्होंने पर्यटन और नागरिक उड्ड्यन मंत्रालय में अपनी सेवाएं दी हैं. इसके बाद उन्हे कपड़ा मंत्रालय में केन्द्रीय राज्य मंत्री स्वतंत्र प्रभार प्रदान किया गया. इस पद पर वह 1991-1993 तक रहे. अशोक गहलोत ने जून 1989 से लेकर नवंबर 1989 तक के अल्पकाल के लिए राजस्थान गृह मंत्रालय और जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का भी भार संभाला था. 34 वर्ष की आयु में अशोक गहलोत राजस्थान प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष बनाए गए. वर्ष 1998 में पहली बार अशोक गहलोत राज्य के मुख्यमंत्री बनाए गए. अपने इस कार्यकाल के दौरान उन्होंने राज्य की प्रगति के लिए कई कार्य किए. उन्होंने राज्य के भीतर बिजली पानी और जन स्वास्थ्य के दिशा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए. इसके अलावा राजस्थान में सूखे का प्रबंधन करने में भी अशोक गहलोत ने प्रभाकारी प्रयास किए. उनका पहला कार्यकाल सफलतापूर्वक समाप्त हुआ. दूसरी बार अशोक गहलोत वर्ष 2008 में मुख्यमंत्री बनाए गए.

अशोक गहलोत से जुड़े विवाद
  • अशोक गहलोत पर अकसर अपने रिश्तेदारों के लिए पक्षपात करने का आरोप लगता रहा है. उन पर आरोप है कि उन्होंने कई करोड़ रूपयों का कांट्रेक्ट उस कंपनी को दिलवाया है जहां उनका बेटा काम करता है.
  • इतना ही नहीं उन पर शोरी कंस्ट्रक्शन नामक एक रियल इस्टेट कंपनी के प्रति भी पक्षपात का आरोप है जिसमें उनकी बेटी और दामाद सह निदेशक हैं.
अशोक गहलोत का योगदान
  • समाज सेवा की भावना से ओत-प्रोत अशोक गहलोत ने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान रिफ्यूजी कैंपों में अपनी सेवाएं दीं.
  • महाराष्ट्र के कई जिलों और गांवों में कच्ची बस्ती के विकास और उनकी देखभाल के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों में भी अशोक गहलोत ने काम किया.
  • नेहरू युवा केन्द्र से जुड़े अशोक गहलोत ने प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में भी कई काम किए.
  • अशोक गहलोत, भारत सेवा संस्थान, जो गरीब लोगों को मुफ्त किताबें और एम्बुलेंस की सुविधा उपलब्ध कराता है, के संस्थापक हैं.
  • मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए अशोक गहलोत ने पानी बचाओ, बिजली बचाओ, सबको पढ़ाओ का नारा देकर आम जनमानस का ध्यान इन जरूरतों के प्रति केन्द्रित किया.
इन सबके अलावा अशोक गहलोत नई दिल्ली स्थित राजीव गांधी स्टडी सर्कल के सदस्य भी हैं, जो देश भर के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के शिक्षकों और विद्यार्थियों के हितों के लिए काम करता है.

राजस्थान के मुख्य सामारोह

• मेवाड सामारोह - उदयपुर मे
• गणगौर सामारोह -जयपुर
• मारवाड सामारोह -जोधपुर में
• तीज सामारोह -जयपुर
• मरू सामारोह -जैसलमेर
• दशहरा सामारोह -कोटा
• हाथी सामारोह -जयपुर
• बैलून महोत्सव -बाडमेर
• थार महोत्सव - बाडमेर
• ऊंट महोत्सव - बीकानेर

राजस्थान का एकीकरण

राजस्थान भारत का एक महत्ती प्रांत है। यह तीस मार्च 1949 को भारत का एक ऐसा प्रांत बना जिसमें तत्कालीन राजपूताना की ताकतवर रियासतों ने विलय किया। इसी कारण इसका नाम राजस्थान बना। राजस्थान यानि राजपूतो का स्थान,इसका नाम राजस्थान होने के पीछे यही एकमात्र मजबूत तर्क है। अगर राजपूताना की देशी रियासतों के विलय के बाद बने इस राज्य की कहानी देखे तो यह प्रासंगिक भी लगता है।
भारत के संवैधानिक इतिहास में राजस्थान का निर्माण एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी । ब्रिटिश शासको द्वारा भारत को आजाद करने की घोषणा करने के बाद जब सत्ता हस्तांतरण की कार्यवाही शुरू की तभी लग गया था कि आजाद भारत का राजस्थान प्रांत बनना और राजपूताना के तत्कालीन हिस्से का भारत में विलय एक दूभर कार्य साबित हो सकता है। आजादी की घोषणा के साथ ही राजपूताना के देशी रियासतों के मुखियाओं में स्वतंत्र राज्य में भी अपनी सत्ता बरकरार रखने की होड सी मच गयी थी , उस समय वर्तमान राजस्थान की भौगालिक स्थिति के नजरिये से देखे तो राजपूताना के इस भूभाग में कुल बाइस देशी रियासते थी। इनमें एक रियासत अजमेर मेरवाडा प्रांत को छोड शेष देशी रियासतों पर देशी राजा महाराजाओं का ही राज था। अजमेर-मेरवाडा प्रांत पर ब्रिटिश शासको का कब्जा था इस कारण यह तो सीघे ही स्वतंत्र भारत में आ जाती, मगर शेष इक्कीस रियासतो का विलय होना यानि एकीकरण कर राजस्थान नामक प्रांत बनाना था। सत्ता की होड के चलते यह बडा ही दूभर लग रहा था क्योंकि इन देशी रियासतों के शासक अपनी रियासतों का स्वतंत्र भारत में विलय को दूसरी प्राथमिकता के रूप में देख रहे थे। उनकी मांग थी कि वे सालों से शासन चलाते आ रहे है। उन्हें शासन करने का अनुभव है । इस कारण उनकी रियासत को स्वतंत्र राज्य का दर्जा दे दिया जाए । करीब एक दशक की उहापोह के बीच 18 मार्च 1948 को शुरू हुयी राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया। कुल सात चरण में एक नवंबर 1956 को पूरी हुयी । इसमें भारत सरकार के तत्कालीन देशी रियासती मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और उनके सचिव वी पी मेनन की भूमिका महत्ती साबित हुयी । इनकी सूझबूझ से ही राजस्थान का निर्माण हो सका।
पहला चरण- 18 मार्च 1948
सबसे पहले अलवर , भरतपुर, धौलपुर, व करौली नामक देशी रियासतो का विलय कर तत्कालीन भारत सरकार ने फरवरी 1948 मे अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर मत्स्य यूनियन के नाम से पहला संध बनाया। यह राजस्थान के निर्माण की दिशा में पहला कदम था। इनमें अलवर व भरतपुर पर आरोप था कि उनके शासक राष्टृविरोधी गतिविधियों में लिप्त थे। इस कारण सबसे पहले उनके राज करने के अधिकार छीन लिए गए व उनकी रियासत का कामकाज देखने के लिए प्रशासक नियुक्त कर दिया गया। इसी की वजह से राजस्थान के एकीकरण की दिशा में पहला संघ बन पाया । यदि प्रशासक न होते और राजकाज का काम पहले की तरह राजा ही देखते तो इनका विलय असंभव था क्योंकि इन राज्यों के राजा विलय का विरोध कर रहे थे।18 मार्च 1948 को मत्स्य संघ का उद़घाटन हुआ और धौलपुर के तत्कालीन महाराजा उदय सिंह को इसका राजप्रमुख मनाया गया। इसकी राजधानी अलवर रखी गयी थी। मत्स्य संध नामक इस नए राज्य का क्षेत्रफल करीब तीस हजार किलोमीटर था। जनसंख्या लगभग 19 लाख और आय एक करोड 83 लाख रूपए सालाना थी। जब मत्स्य संघ बनाया गया तभी विलय पत्र में लिख दिया गया कि बाद में इस संघ का राजस्थान में विलय कर दिया जाएगा।
दूसरा चरण 25 मार्च 1948
राजस्थान के एकीकरण का दूसरा चरण पच्चीस मार्च 1948 को स्वतंत्र देशी रियासतों कोटा, बूंदी, झालावाड, टौंक, डूंगरपुर, बांसवाडा, प्रतापगढ , किशनगढ और शाहपुरा को मिलाकर बने राजस्थान संघ के बाद पूरा हुआ। राजस्थान संध में विलय हुई रियासतों में कोटा बडी रियासत थी इस कारण इसके तत्कालीन महाराजा महाराव भीमसिंह को राजप्रमुख बनाया गया। के तत्कालीन महाराव बहादुर सिंह राजस्थान संघ के राजप्रमुख भीमसिंह के बडे भाई थें इस कारण उन्हे यह बात अखरी की कि छोटे भाई की राजप्रमुखता में वे काम कर रहे है। इस ईर्ष्या की परिणति तीसरे चरण के रूप में सामने आयी।
तीसरा चरण 18 अप्रैल 1948
बूंदी के महाराव बहादुर सिंह नहीं चाहते थें कि उन्हें अपने छोटे भाई महाराव भीमसिंह की राजप्रमुखता में काम करना पडें, मगर बडे राज्य की वजह से भीमसिंह को राजप्रमुख बनाना तत्कालीन भारत सरकार की मजबूरी थी। जब बात नहीं बनी तो बूंदी के महाराव बहादुर सिंह ने उदयपुर रियासत को पटाया और राजस्थान संघ में विलय के लिए राजी कर लिया। इसके पीछे मंशा यह थी कि बडी रियासत होने के कारण उदयपुर के महाराणा को राजप्रमुख बनाया जाएगा और बूंदी के महाराव बहादुर सिंह अपने छोटे भाई महाराव भीम सिंह के अधीन रहने की मजबूरी से बच जाएगे और इतिहास के पन्नों में यह दर्ज होने से बच जाएगा कि छोटे भाई के राज में बडे भाई ने काम किया। अठारह अप्रेल 1948 को राजस्थान के एकीकरण के तीसरे चरण में उदयपुर रियासत का राजस्थान संध में विलय हुआ और इसका नया नाम हुआ संयुक्त राजस्थान संघ। माणिक्य लाल वर्मा के नेतृत्व में बने इसके मंत्रिमंडल में उदयपुर के महाराणा भूपाल सिंह को राजप्रमुख बनाया गया कोटा के महाराव भीमसिंह को वरिष्ठ उपराजप्रमुख बनाया गया। इसीके साथ बूंदी के महाराजा की चाल भी सफल हो गयी।
चौथा चरण तीस मार्च 1949
इससे पहले बने संयुक्त राजस्थान संघ के निर्माण के बाद तत्कालीन भारत सरकार ने अपना ध्यान देशी रियासतों जोधपुर , जयपुर, जैसलमेर और बीकानेर पर केन्द्रित किया और इसमें सफलता भी हाथ लगी और इन चारों रियासतो का विलय करवाकर तत्कालीन भारत सरकार ने तीस मार्च 1949 को ग्रेटर राजस्थान संघ का निर्माण किया, जिसका उदघाटन भारत सरकार के तत्कालीन रियासती मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया। यहीं आज के राजस्थान की स्थापना का दिन माना जाता है। इस कारण इस दिन को हर साल राजस्थान दिवस के रूप में मनाया जाता है। हांलांकि अभी तक चार देशी रियासतो का विलय होना बाकी था, मगर इस विलय को इतना महत्व नहीं दिया जाता है , क्योंकि जो रियासते बची थी वे पहले चरण में ही मत्स्य संघ के नाम से स्वतंत्र भारत में विलय हो चुकी थी। अलवर , भतरपुर, धौलपुर व करौली नामक इन रियासतो पर भारत सरकार का ही आधिपत्य था इस कारण इनके राजस्थान में विलय की तो मात्र औपचारिकता ही होनी थी।
पांचवा चरण 15 अप्रेल 1949
पन्द्रह अप्रेल 1949 को मत्स्य संध का विलय ग्रेटर राजस्थान में करने की औपचारिकता भी भारत सरकार ने निभा दी। भारत सरकार ने 18 मार्च 1948 को जब मत्स्य संघ बनाया था तभी विलय पत्र में लिख दिया गया था कि बाद में इस संघ का राजस्थान में विलय कर दिया जाएगा। इस कारण भी यह चरण औपचारिकता मात्र माना गया।
छठा चरण 26 जनवरी 1950
भारत का संविधान लागू होने के दिन 26 जनवरी 1950 को सिरोही रियासत का भी विलय ग्रेटर राजस्थान में कर दिया गया। इस विलय को भी औपचारिकता माना जाता है क्योंकि यहां भी भारत सरकार का नियंत्रण पहले से ही था। दरअसल जब राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया चल रही थी, तब सिरोही रियासत के शासक नाबालिग थे। इस कारण सिरोही रियासत का कामकाज दोवागढ की महारानी की अध्यक्षता में एजेंसी कौंसिल ही देख रही थी जिसका गठन भारत की सत्ता हस्तांतरण के लिए किया गया था। सिरोही रियासत के एक हिस्से आबू देलवाडा को लेकर विवाद के कारण इस चरण में आबू देलवाडा तहसील को बंबई और शेष रियासत विलय राजस्थान में किया गया।
सांतवा चरण एक नवंबर 1956
अब तक अलग चल रहे आबू देलवाडा तहसील को राजस्थान के लोग खोना नही चाहते थे, क्योंकि इसी तहसील में राजस्थान का कश्मीर कहा जाने वाला आबूपर्वत भी आता था , दूसरे राजस्थानी, बच चुके सिरोही वासियों के रिश्तेदार और कईयों की तो जमीन भी दूसरे राज्य में जा चुकी थी। आंदोलन हो रहे थे, आंदोलन कारियों के जायज कारण को भारत सरकार को मानना पडा और आबू देलवाडा तहसील का भी राजस्थान में विलय कर दिया गया। इस चरण में कुछ भाग इधर उधर कर भौगोलिक और सामाजिक त्रुटि भी सुधारी गया। इसके तहत मध्यप्रदेश में शामिल हो चुके सुनेल थापा क्षेत्र को राजस्थान में मिलाया गया और झालावाड जिले के उप जिला सिरनौज को मध्यप्रदेश को दे दिया गया। इसी के साथ आज से राजस्थान का निर्माण या एकीकरण पूरा हुआ। जो राजस्थान के इतिहास का एक अति महत्ती कार्य था

राजस्थान - भौगोलिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य

राजस्थान की चोहरी इसे एक पतंगाकार आकृति प्रदान करता है। राज्य २३ से ३० अक्षांश और ६९ से ७८ देशान्तर के बीच स्थित है। इसके उत्तर में पाकिस्तान, पंजाब और हरियाणा, दक्षिण में मध्यप्रदेश और गुजरात, पूर्व में उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश एवं पश्चिम में पाकिस्तान है।
सिरोही से अलवर की ओर जाती हुई ४८० कि.मी. लम्बी अरावली पर्वत श्रृंखला प्राकृतिक दृष्टि से राज्य को दो भागों में विभाजित करती है। राजस्थान का पूर्वी सम्भाग शुरु से ही उपजाऊ रहा है। इस भाग में वर्षा का औसत ५० से.मी. से ९० से.मी. तक है। राजस्थान के निर्माण के पश्चात् चम्बल और माही नदी पर बड़े-बड़े बांध और विद्युत गृह बने हैं, जिनसे राजस्थान को सिंचाई और बिजली की सुविधाएं उपलब्ध हुई है। अन्य नदियों पर भी मध्यम श्रेणी के बांध बने हैं। जिनसे हजारों हैक्टर सिंचाई होती है। इस भाग में ताम्बा, जस्ता, अभ्रक, पन्ना, घीया पत्थर और अन्य खनिज पदार्थों के विशाल भण्डार पाये जाते हैं।
राज्य का पश्चिमी संभाग देश के सबसे बड़े रेगिस्तान "थारपाकर' का भाग है। इस भाग में वर्षा का औसत १२ से.मी. से ३० से.मी. तक है। इस भाग में लूनी, बांड़ी आदि नदियां हैं, जो वर्षा के कुछ दिनों को छोड़कर प्राय: सूखी रहती हैं। देश की स्वतंत्रता से पूर्व बीकानेर राज्य गंगानहर द्वारा पंजाब की नदियों से पानी प्राप्त करता था। स्वतंत्रता के बाद राजस्थान इण्डस बेसिन से रावी और व्यास नदियों से ५२.६ प्रतिशत पानी का भागीदार बन गया। उक्त नदियों का पानी राजस्थान में लाने के लिए सन् १९५८ में राजस्थान नहर (अब इंदिरा गांधी नहर) की विशाल परियोजना शुरु की गई। यह परियोजना सन् २००५ तक सम्पूर्ण होगी। इस परियोजना पर ३००० करोड़ रु. व्यय होने का अनुमान है। इस समय इस पर १६०० करोड़ रु. व्यय हो चुके हैं। अब तक ६४९ कि.मी. लम्बी मुख्य नहर पूरी हो चुकी है। नहर की वितरिका प्रणाली लगभग ९००० कि.मी. होगी, इनमें से ६००० कि.मी. वितरिकाएं बन चुकी है। इस समय १० लाख हैक्टेयर भूमि परियोजना के सिंचाई क्षेत्र में आ गई है। परियोजना के पूरी होने के बाद क्षेत्र की कुल १५.७९ लाख हैक्टेयर भूमि सिंचाई से लाभान्वित होगी, जिससे ३५ लाख टन खाद्यान्न, ३ लाख टन वाणिज्यिक फसलें एवं ६० लाख टन घास उत्पन्न होगी। परियोजना क्षेत्र में कुल ५ लाख परिवार बसेंगे। जोधपुर, बीकानेर, चुरु एवं बाड़मेर जिलों के नगर और कई गांवों को नहर से विभिन्न "लिफ्ट परियोजनाओं' से पहुंचाये गये पीने का पानी उपलब्ध होगा। इस प्रकार राजस्थान के रेगिस्तान का एक बड़ा भाग शस्य श्यामला भूमि में बदल जायेगा। सूरतगढ़ में यह नजारा इस समय भी देखा जा सकता है।
इण्डस बेसिन की नदियों पर बनाई जाने वाली जल-विद्युत योजनाओं में भी राजस्थान भागीदार है। इसे इस समय भाखरा-नांगल और अन्य योजनाओं के कृषि एवं औद्योगिक विकास में भरपूर सहायता मिलती है। राजस्थान नहर परियोजना के अलावा इस भाग में जवाई नदी पर निर्मित एक बांध है, जिससे न केवल विस्तृत क्षेत्र में सिंचाई होती है, वरन् जोधपुर नगर को पेय जल भी प्राप्त होता है। यह सम्भाग अभी तक औद्योगिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ है। पर इस क्षेत्र में ज्यो-ज्यों बिजली और पानी की सुविधाएं बढ़ती जायेंगी औद्योगिक विकास भी गति पकड़ लेगा। इस बाग में लिग्नाइट, फुलर्सअर्थ, टंगस्टन, बैण्टोनाइट, जिप्सम, संगमरमर आदि खनिज पदार्थ प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। जैसलमेर क्षेत्र में तेल मिलने की अच्छी सम्भावनाएं हैं। हाल ही की खुदाई से पता चला है कि इस क्षेत्र में उच्च कि की गैस प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। अब वह दिन दूर नहीं है जबकि राजस्थान का यह भाग भी समृद्धिशाली बन जाएगा।
राज्य का क्षेत्रफल ३.४२ लाख वर्ग कि.मी. है जो भारत के क्षेत्रफल का १०.४० प्रतिशत है। यह भारत का सबसे बड़ा राज्य है। वर्ष १९९६-९७ में राज्य में गांवों की संख्या ३७८८९ और नगरों तथा कस्बों की संख्या २२२ थी। राज्य में ३२ जिला परिषदें, २३५ पंचायत समितियां और ९१२५ ग्राम पंचायतें हैं। नगर निगम २ और सभी श्रेणी की नगरपालिकाएं १८० हैं।
सन् १९९१ की जनगणना के अनुसार राज्य की जनसंख्या ४.३९ करोड़ थी। जनसंखाय घनत्व प्रति वर्ग कि.मी. १२६ है। इसमें पुरुषों की संख्या २.३० करोड़ और महिलाओं की संख्या २.०९ करोड़ थी। राज्य में दशक वृद्धि दर २८.४४ प्रतिशत थी, जबकि भारत में यह दर २३.५६ प्रतिशत थी। राज्य में साक्षरता ३८.८१ प्रतिशत थी. जबकि भारत की साक्षरता तो केवल २०.८ प्रतिशत थी जो देश के अन्य राज्यों में सबसे कम थी। राज्य में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति राज्य की कुल जनसंख्या का क्रमश: १७.२९ प्रतिशत और १२.४४ प्रतिशत है।
१९९६-९७ के अन्त में प्राथमिक विद्यालय ३३८९, उच्च प्राथमिक विद्यालय १२,६९२, माध्यमिक विद्यालय ३५०१ और वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय १४०४ थे। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में विश्वविद्यालय ६, "डीम्ड' विश्वविद्यालय ४, कला वाणिज्य और विज्ञान महाविद्यालय २३१, इंजीनियकिंरग कॉलेज ७, मेडिकल कॉलेज ६, आयुर्वेद महाविद्यालय ५ और पोलीटेक्निक २४ हैं। राज्य में हॉस्पिटल २९, डिस्पेंसरियां २७८, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र १६१६, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र २६१, शहरी सहायता केन्द्र १३, उपकेन्द्र ९४००, मातृ एवं शिशु कल्याण केन्द्र ११८ एवं अन्तरोगी शैय्या में ३६७०२ हैं। आयुर्वेद औषधालयो की संख्या ३५७१ और होम्योपैथी चिकित्सालयों की संख्या १४६८ और भ्रमणशील पशु चिकित्सालयों की संख्या ५३ है।
राज्य में पशुधन की संख्या ६ करोड़ से अधिक है। राज्य के सभी नगर एवं ३७,२७४ गांव सुरक्षित पेय जल योजना के अन्तर्गत आ चुके हैं। राज्य में सड़कों की कुल लम्बाई १,३८,००० कि.मी. थी और वाहनों की संख्या १९.८ लाख थी। इनमें कारों और जीपों की संख्या १,६० लाख थी।
१९९६-९७ में राज्य का सकल घरेलू उत्पाद स्थिर कीमतों पर लगभग १२४२० करोड़ रु. और सुद्ध घरेलू उत्पाद ११,०२१ करोड़ रु का था। राज्य में प्रति व्यक्ति आय २,२३२ रु. थी। उक्त वर्ष राज्य में खाद्यान्न उत्पाद १२७०२ लाख टन था और तिलहन तथा कपास का उत्पादन क्रमश: ४० लाख टन और १२.९५ लाख गांठें थी। राज्य में फसलों के अन्तर्गत कुल १७५ लाख हैक्टेयर क्षेत्र था। इसका २९ प्रतिशत सिंचित क्षेत्र था।
राज्य में १९९६ में शक्कर का उत्पादन ३१ हजार टन, वनस्पति घी का ३० हजार टन, नमक का ११ लाख टन, सीमेन्ट का ६६ लाख टन, सूती कपडे का ४५७ लाख मीटर और पोलिएस्टर धागे का उत्पादन ११५०० टन हुआ। प्रदेश में १९९६ में सार्वजनिक क्षेत्र में १०.१० लाख और निजी क्षेत्र में २.५६ लाख व्यक्ति कार्यरत थे। राज्य में बैंकों की कुल शाखाएं ३२१७ थीं, जिनमें क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की १०७० शाखाएं शामिल हैं।

वीर तेजाजी की स्मृति में डाक टिकट जारी

वीर तेजाजी की स्मृति में डाक टिकट जारी

केन्द्रीय संचार एवं प्रौद्योगिकी राज्यमंत्री सचिन पायलट ने 7 सितंबर को नागौर जिले के खरनाल में वीर तेजाजी की स्मृति में जारी डाक टिकट का रिमोट दबा कर विमोचन किया। इस अवसर पर आयोजित समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि देश का इतिहास बड़ा गौरवमयी रहा है। यहां भाषा, खान-पान, रहन-सहन और अन्य प्रकार की विविधताएं होने के बावजूद पूरा देश एकता रूपी माला में बंधा हुआ है। हमारे लोक देवता तथा लोकसंत लाखों-करोड़ों देशवासियों की भावनाओं से जुड़े हैं तथा आस्था के प्रतीक हैं। प्रत्येक गाँव तथा ढाणी में उन्हें श्रद्धा की भावना से पूजा जाता है। केन्द्र सरकार द्वारा जनता की इसी आस्था के सम्मान करते लिए वीर तेजा जी पर डाक टिकट जारी किया गया है। उन्होंने कहा कि डाक टिकट विमोचन के बाद वीर तेजाजी की कीर्ति और वीरता की गाथा पूरी दुनिया जान पाएगी।

राजस्थान ने रचा इतिहास, पहली बार जीती रणजी ट्राफी

डोदा। राजस्थान क्रिकेट टीम ने पहली बार रणजी ट्राफी जीत कर इतिहास रच दिया है। पांचवे और अंतिम दिन के खेल के अंत में फाइनल मैच ड्रा रहने के कारण राजस्थान को बडोदा पर पहली पारी में 33 रन की लीड के आधार पर विजेता घोषित किया गया। पांचवे और अंतिम दिन 375 रनों के लक्ष्य का पीछा करते हुए बडोदा ने खेल खत्म होने तक अपरी दूसरी पारी में 14 ओवर में 28/4 बना लिए थे। इससे पहले दिन में खेल की शुरूआत होने पर चार विकेट पर 201 रन बना चुके राजस्थान ने खेलना शुरू किया।
हाल ही आईपीएल 4 में राजस्थान रॉयल्स का हिस्सा बने लेफ्ट आर्म स्पिनर अशोक मनेरियसा के शानदार शतक की बदौलत राजस्थान ने दूसरी पारी में 341 रन बनाए। पांच दिवसीय मैच के अंतिम दिन राजस्थान ने बडोदा पर 234 रनों की लीड ले ली थी। 36 साल में पहली बार रणजी के फाइनल में पहुंचे राजस्थान ने पहली पारी में 394 रन बनाए। बडोदा को पहली पारी में 361 रनों के स्कोर पर समेटने के बाद राजस्थान की शुरूआत काफी खराब रही। ओपनर अशोक चोपडा (5) और विनीत सक्सैना मात्र छह रन पर आउट हो गए। इसके बाद कप्तान ऋषिकेश कनितकर के भी एक रन पर सस्ते में आउट हो जाने पर 11 रन पर तीन विकेट गिर चुके थे।

राजस्थान पर्यटन

गुलाबी नगर जयपुर

भारत के एतिहासिक एवं सांस्कृतिक राज्यों में राजस्थान अग्रणीय है। प्राचीन सभ्यता में डूबे हुए शहर की विविधता हर रूप में उभर कर आती है। राजस्थान की राजधानी जयपुर एक प्राचीन शहर है जो गुलाबी शहर के नाम से भी प्रसिद्ध है। इसकी पश्चिम ओर स्थित है थार मरुभूमि जो दुनिया के मशहूर रेगिस्तानों में से एक है।  


आकर्षक पर्यटन स्थल

शहर में बहुत से पर्यटन आकर्षण हैं, जैसे जंतर मंतर, जयपुर, हवा महल, सिटी पैलेस, गोविंद देवजी का मंदिर, बी एम बिड़ला तारामण्डल, आमेर का किला, जयगढ़ दुर्ग आदि। जयपुर के रौनक भरे बाजारों में दुकानें रंग बिरंगे सामानों से भरी हैं , जिनमें हथकरघा उत्पाद, बहुमूल्य पत्थर, हस्तकला से युक्त वनस्पति रंगों से बने वस्त्र, मीनाकारी आभूषण, पीतल का सजावटी सामान,राजस्थानी चित्रकला के नमूने, नागरा-मोजरी जूतियाँ, ब्लू पॉटरी, हाथीदांत के हस्तशिल्प और सफ़ेद संगमरमर की मूर्तियां आदि शामिल हैं। प्रसिद्ध बाजारों में जौहरी बाजार, बापू बाजार, नेहरू बाजार, चौड़ा रास्ता, त्रिपोलिया बाजार और एम.आई. रोड़ के साथ लगे बाजार हैं ।

सिटी पैलेस
राजस्थानी व मुगल शैलियों की मिश्रित रचना एक पूर्व शाही निवास जो पुराने शहर के बीचोंबीच है। भूरे संगमरमर के स्तंभों पर टिके नक्काशीदार मेहराब, सोने व रंगीन पत्थरों की फूलों वाली आकृतियों ले अलंकृत है। संगमरमर के दो नक्काशीदार हाथी प्रवेश द्वार पर प्रहरी की तरह खड़े है। जिन परिवारों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी राजाओं की सेवा की है। वे लोग गाइड के रूप में कार्य करते है। पैलेस में एक संग्राहलय है जिसमें राजस्थानी पोशाकों व मुगलों तथा राजपूतों के हथियार का बढ़िया संग्रह हैं। इसमें विभिन्न रंगों व आकारों वाली तराशी हुई मूंठ की तलवारें भी हैं, जिनमें से कई मीनाकारी के जड़ऊ काम व जवाहरातों से अलंकृत है तथा शानदार जड़ी हुई म्यानों से युक्त हैं। महल में एक कलादीर्घा भी हैं जिसमें लघुचित्रों, कालीनों, शाही साजों सामान और अरबी, फारसी, लेटिन व संस्कृत में दुर्लभ खगोल विज्ञान की रचनाओं का उत्कृष्ट संग्रह है जो सवाई जयसिंह द्वितीय ने विस्तृत रूप से खगोल विज्ञान का अध्ययन करने के लिए प्राप्त की थी।

जंतर मंतर
एक पत्थर की वेधशाला। यह जयसिंह की पाँच वेधशालाओं में से सबसे विशाल है। इसके जटिल यंत्र, इसका विन्यास व आकार वैज्ञानिक ढंग से तैयार किया गया है। यह विश्वप्रसिद्ध वेधशाला जिसे २०१२ में यूनेस्को ने विश्व धरोहरों में शामिल किया है, मध्ययुगीन भारत के खगोलविज्ञान की उपलब्धियों का जीवंत नमूना है! इनमें सबसे प्रभावशाली रामयंत्र है जिसका इस्तेमाल ऊंचाई नापने के लिए किया जाता है।

हवा महल
ईसवी सन् 1799 में निर्मित हवा महल राजपूत स्थापत्य का मुख्य प्रमाण चिन्ह। पुरानी नगरी की मुख्य गलियों के साथ यह पाँच मंजिली इमारत गुलाबी रंग में अर्धअष्टभुजाकार और परिष्कृत छतेदार बलुए पत्थर की खिड़कियों से सुसज्जित है। शाही स्त्रियां शहर का दैनिक जीवन व शहर के जुलूस देख सकें इसी उद्देश्य से इमारत की रचना की गई थी।

गोविंद देवजी का मंदिर
भगवान कृष्ण का जयपुर का सबसे प्रसिद्ध, बिना शिखर का मंदिर। यह चन्द्रमहल के पूर्व में बने जन-निवास बगीचे के मध्य अहाते में स्थित है। संरक्षक देवता गोविंदजी की मूर्ति पहले वृंदावन के मंदिर में स्थापित थी जिसको सवाई जयसिंह द्वितीय ने अपने परिवार के देवता के रूप में यहाँ पुनः स्थापित किया था।

सरगासूली-
(ईसर लाट) - त्रिपोलिया बाजार के पश्चिमी किनारे पर उच्च मीनारनुमा इमारत जिसका निर्माण ईसवी सन् 1749 में सवाई ईश्वरी सिंह ने अपनी मराठा विजय के उपलक्ष्य में करवाया था।

रामनिवास बाग
एक चिड़ियाघर, पौधघर, वनस्पति संग्रहालय से युक्त एक हरा भरा विस्तृत बाग, जहाँ खेल का प्रसिद्ध क्रिकेट मैदान भी है। बाढ राहत परियोजना के अंतर्गत ईसवी सन् 1865 में सवाई राम सिंह द्वितीय ने इसे बनवाया था। सर विंस्टन जैकब द्वारा रूपांकित, अल्बर्ट हाल जो भारतीय वास्तुकला शैली का परिष्कृत नमूना है, जिसे बाद में उत्कृष्ट मूर्तियों, चित्रों, सज्जित बर्तनों, प्राकृतिक विज्ञान के नमूनों, इजिप्ट की एक ममी और फारस के प्रख्यात कालीनों से सुसज्जित कर खोला गया। सांस्कृतिक कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए एक प्रेक्षागृह के साथ रवीन्द्र मंच, एक आधुनिक कलादीर्घा व एक खुला थियेटर भी इसमें बनाया गया हैं।
गुड़िया घर 
पुलिस स्मारक के पास मूक बधिर विद्यालय के अहाते में विभिन्न देशों की प्यारी गुड़ियाँ यहाँ प्रदर्शित हैं (समयः 12 बजे से सात बजे तक)


बी एम बिड़ला तारामण्डल
(समयः 12 बजे से सात बजे तक)- अपने आधुनिक कम्पयूटरयुक्त प्रक्षेपण व्यवस्था के साथ इस ताराघर में श्रव्य व दृश्य शिक्षा व मनोरंजनों के साधनों की अनेखी सुविधा उपलब्घ है। विद्यालयों के दलों के लिये रियायत उपलब्ध है। प्रत्येक महीने के आखिरी बुघवार को यह बंद रहता है।

गलताजी
एक प्राचीन तार्थस्थल, निचली पहाड़ियों के बीच बगीचों से परे स्थित। मंदिर, मंडप और पवित्र कुंडो के साथ हरियाली युक्त प्राकृतिक दृश्य इसे आनन्ददायक स्थल बना देते हैं। दीवान कृपाराम द्वारा निर्मित उच्चतम चोटी के शिखर पर बना सूर्य देवता का छोटा मंदिर शहर के सारे स्थानों से दिखाई पड़ता है।

जैन मंदिर
आगरा मार्ग पर बने इस उत्कृष्ट जैन मंदिर की दीवारों पर जयपुर शैली में उन्नीसवीं सदी के अत्यधिक सुंदर चित्र बने हैं।

मोती डूंगरी और लक्ष्मी नारायण मंदिर
मोती डूंगरी एक निजी पहाड़ी ऊंचाई पर बना किला है जो स्कॉटलैण्ड के किले की तरह निर्मित है। कुछ वर्षों पहले, पहाड़ी पादगिरी पर बना गणेश मंदिर और अद्भुत लक्ष्मी नारायण मंदिर भी उल्लेखनीय है।

स्टैच्यू सर्किल 
चक्कर के मध्य सवाई जयसिंह का स्टैच्यू बहुत ही उत्कृष्ट ढंग से बना हुआ है। इसे जयपुर के संस्थापक को श्रद्धांजलि देने के लिए नई क्षेत्रीय योजना के अंतर्गत बनाया गया है। इस में स्थापित सवाई जयसिंह की भव्यमूर्ति के मूर्तिशिल्पी स्व.महेंद्र कुमार दास हैं।

अन्य स्थल
आमेर मार्ग पर रामगढ़ मार्ग के चौराहे के पास रानियों की याद में बनी आकर्षक महारानी की कई छतरियां है। मानसागर झील के मध्य, सवाई माधोसिंह प्रथम द्वारा निर्मित जल महल, एक मनोहारी स्थल है। परिष्कृत मंदिरों व बगीचों वाले कनक वृंदावन भवन की पुरातन पूर्णता को विगत समय में पुनर्निर्मित किया गया है। इस सड़क के पश्चिम में गैटोर में शाही शमशान घाट है जिसमें जयपुर के सवाई ईश्वरी सिंह के सिवाय समस्त शासकों के भव्य स्मारक हैं। बारीक नक्काशी व लालित्यपूर्ण आकार से युक्त सवाई जयसिंह द्वितीय की बहुत ही प्रभावशाली छतरी है। प्राकृतिक पृष्ठभूमि से युक्त बगीचे आगरा मार्ग पर दीवारों से घिरे शहर के दक्षिण पूर्वी कोने पर घाटी में फैले हुए हैं।

गैटोर
सिसोदिया रानी के बाग में फव्वारों, पानी की नहरों, व चित्रित मंडपों के साथ पंक्तिबद्ध बहुस्तरीय बगीचे हैं व बैठकों के कमरे हैं। अन्य बगीचों में, विद्याधर का बाग बहुत ही अच्छे ढ़ग से संरक्षित बाग है, इसमें घने वृक्ष, बहता पानी व खुले मंडप हैं। इसे शहर के नियोजक विद्याधर ने निर्मित किया था।

आमेर
यह कभी सात सदी तक ढूंडार के पुराने राज्य के कच्छवाहा शासकों की राजधानी थी। आमेर और शीला माता मंदिर - लगभग दो शताब्दी पूर्व राजा मान सिंह, मिर्जा राजा जयसिंह और सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित महलों, मंडपों, बगीचों और मंदिरों का एक आकर्षक भवन है। मावठा झील के शान्त पानी से यह महल सीधा उभरता है और वहाँ सुगम रास्ते द्वारा पहुंचा जा सकता है। सिंह पोल और जलेब चौक तक अकसर पर्यटक हाथी पर सवार होकर जाते हैं। चौक के सिरे से सीढ़ियों की पंक्तियाँ उठती हैं, एक शिला माता के मंदिर की ओर जाती है और दूसरी महल के भवन की ओर। यहां स्थापित करने के लिए राजा मानसिंह द्वारा संरक्षक देवी की मूर्ति, जिसकी पूजा हजारों श्रद्धालु करते है, पूर्वी बंगाल (जो अब बंगला देश है) के जेसोर से यहां लाई गई थी। एक दर्शनीय स्तंभों वाला हॉल दीवान-ए-आम और एक दोमंजिला चित्रित प्रवेशद्वार, गणेश पोल आगे के प्रांगण में है। गलियारे के पीछे चारबाग की तरह का एक रमणीय छोटा बगीचा है जिसकी दाई तरफ सुख निवास है और बाई तरफ जसमंदिर। इसमें मुगल व राजपूत वास्तुकला का मिश्रित है, बारीक ढंग से नक्काशी की हुई जाली की चिलमन, बारीक शीशों और गचकारी का कार्य और चित्रित व नक्काशीदार निचली दीवारें । मावठा झील के मध्य में सही अनुपातित मोहन बाड़ी या केसर क्यारी और उसके पूर्वी किनारे पर दिलराम बाग ऊपर बने महलों का मनोहर दृश्य दिखाते है।



पुराना शहर - कभी राजाओं, हस्तशिल्पों व आम जनता का आवास आमेर का पुराना क़स्बा अब खंडहर बन गया है। आकर्षक ढंग से नक्काशीदार व सुनियोजित जगत शिरोमणि मंदिर, मीराबाई से जुड़ा एक कृष्ण मंदिर, नरसिंहजी का पुराना मंदिर व अच्छे ढंग से बना सीढ़ियों वाला कुआँ, पन्ना मियां का कुण्ड समृद्ध अतीत के अवशेष हैं ।

जयगढ़ किला
मध्ययुगीन भारत के कुछ सैनिक इमारतों में से एक। महलों, बगीचों, टांकियों, अन्य भन्डार, शस्त्रागार, एक सुनोयोजित तोप ढलाई-घर, अनेक मंदिर, एक लंबा बुर्ज और एक विशालकाय तोप - जयबाण जो देश की सबसे बड़ी तोपों में से एक है। जयगढ़ के फैले हुए परकोटे, बुर्ज और प्रवेश द्वार पश्चिमी द्वार क्षितिज को छूते हैं. नाहरगढः जयगढ की पहाड़ियों के पीछे स्थित गुलाबी शहर का पहरेदार है - नाहरगढ़ किला। यद्यपि इसका बहुत कुछ हिस्सा ध्वस्त हो गया है, फिर भी सवाई मान सिंह द्वितीय व सवाई माधोसिंह द्वितीय द्वारा बनाई मनोहर इमारतें किले की रौनक बढाती हैं सांगानेर (१२ किलोमीटर) - यह टोंक जाने वाले राजमार्ग पर स्थित है। इसके ध्वस्त महलों के अतिरिक्त, सांगानेर के उत्कृष्ट नक्काशीदार जैन मंदिर है। दो त्रिपोलिया (तीन मुख्य द्वार ) के अवशेषो द्वारा नगर में प्रवेश किया जाता है।

राजस्थान मे प्रमुख इतिहासकार

शारीरिक पुष्टता कम थी, प्रवास का कार्य कठिन था। कोई दूसरा विकल्प न होने के कारण गोपीनाथ को यह कार्य न चाहते हुए भी करना पड़ा। निरीक्षण का क्षेत्र विस्तृत था- भीलवाड़ा, चित्तौड़ व उदयपुर। इस प्रवास में उन्हें ऐतिहासिक व धार्मिक स्थल देखने का अवसर प्राप्त हुआ। यहां के जनजीवन, यहां की प्रकृति, लोगों की आर्थिक स्थिति, तीज त्योहार, खेती आदि को नजदीक से उन्होंने देखा। अब उन्हें इनके बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने की इच्छा हुई। जिस प्रवास पर प्रारम्भ में जाने से भय लगता था वह अब उनके जिज्ञासा का कारण बन गया। उनकी यह इच्छा तीव्रतर होती गई। बाद में उन्होंने यह निश्चय किया कि वे एम.ए. की परीक्षा इतिहास में देंगे। उस समय आगरा विश्वविद्यालय से स्वयंपाठी के रूप में परीक्षा देने की व्यवस्था थी। इतिहास की पुस्तकें उन्होंने “इम्पीरियल लाइब्रेरी कलकत्ता” के सदस्य बनकर प्राप्त कर लीं। ये पुस्तकें उन्हें एक माह के लिये ही मिलती थी। सन् 1937 में उन्होंने एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। दण्ड स्वरूप दी गई नियुक्ति गोपीनाथ के लिये वरदान सिद्ध हुई। एम.ए. करते ही उन्हें लम्बरदार हाई स्कूल, जो उस समय कृषि महाविद्यालय के पुराने भवन में था, के उप प्रधानाध्यापक पद पर नियुक्ति मिल गई। यहां उन्होंने दो वर्ष काम किया। उस समय मेवाड़ राज्य के शिक्षामंत्री रतिलाल अंतानी का पुत्र विनोद अंतानी एम.बी. कॉलेज में अध्यापन कार्य कर रहा था। उसके विदेश चले जाने पर उस रिक्त पद पर 40 रू. मूल वेतन व 35 रू. भत्ते के मासिक वेतन पर उनकी एम.बी. कॉलेज में नियुक्ति हो गई।


उस समय एक रोचक घटना घटी । उत्तरप्रदेश के राज्यपाल की सिफारिश पर श्री चण्डीप्रसाद को इतिहास के प्राध्यापक के रूप में चयनित किया गया। परिणामस्वरूप गोपीनाथ को लिपिक का कार्य करना पड़ा। उन्हें केवल एक कालांश इतिहास पढ़ाने का अवसर मिलता था। समय बीता। निदेशक महोदय ने चण्डी प्रसाद से उनके प्रमाणपत्र मांगे। पहले तो उसने आनाकानी की, बाद में दबाव डालने पर उसने स्पष्ट बताया कि उसने इतिहास संबंधित कोई परीक्षा उत्तीर्ण नहीं की है। यह पूछे जाने पर कि “वह इतिहास का अध्यापन कैसे करता था” उसने बताया कि “वह गोपीनाथ से पढ़कर पढ़ाता था। वे यह जानते थे कि मेरे (चण्डीप्रसाद के) यहां रहने पर वे (गोपीनाथ) कभी प्राध्यापक नहीं बन सकते फिर भी उन्होंने मुझे पढ़ाया। वे भले और उदार प्राणी है और वे ही इस पद के लिये योग्य व्यक्ति है।” बाद में गोपीनाथ को प्राध्यापक के पद पर स्थायी तौर पर 100 रू. के मासिक वेतन पर नियुक्ति मिल गई।

एक बार एम.बी. कॉलेज में एक अंग्रेज निरीक्षक निरीक्षण करने आये। निरीक्षक जब गोपीनाथ जी के कक्ष में निरीक्षण करने आये तो वे नागरिक शात्र (उस समय नागरिक शात्र इतिहास का ही अंग माना जाता था।) में नागरिकों के मौलिक अधिकार पढ़ा रहे थे। वे 20 मिनट तक कक्षा में बैठे । निरीक्षण की समाप्ति पर मेवाड़ के शिक्षा मंत्री से भेंट के समय उन्होंने गोपीनाथजी के अध्यापन की तो प्रशंसा की पर इतिहास से नागरिक शात्र हटाने की बात कही। निरीक्षण के बाद गोपीनाथजी को बुलाया गया तो उनके मन में यह शंका रही कि उनके अध्यापन में कमी रह गई है। मिलने पर सारी बात जान लेने पर गोपीनाथ जी ने शिक्षा मंत्री को समझाया कि किसी विषय को हटाना या लगाना किसी प्राध्यापक का काम नहीं है यह तो बोर्ड ही कर सकता है। उनकी इस निर्भीकता से शिक्षा मंत्री बड़े प्रभावित हुए।
इतिहास में ख्याति बढ़ने के साथ ही राज्य सरकार ने उन्हें सन् 1944 में “मेवाड़ में ऐतिहासिक दस्तावेज की संभागीय समिति” के सचिव के पद पर नियुक्त किया। प्राध्यापक का कार्य करते हुए उन्होंने तीन वर्ष तक यह कार्य सम्भाला। समय की बचत करने के लिये इस समय गोपीनाथ जी ने साईकिल सीखी।

शिक्षा में प्रसार के कारण एम.बी. कॉलेज में छात्रों की संख्या बढ़ती जा रही थी। उचित अवसर जानकर राज्य सरकार ने इस कॉलेज को क्रमोन्नत कर दिया। इस डिग्री कॉलेज के प्रथम प्राचार्य बने डा. बसु, जो एक कुशल प्रशासक थे। उन्होंने आते ही अध्यापकों की योग्यता को देखकर छंटनी की। कॉलेज के लिये 7 प्राध्यापक ही अपनी योग्यता पूर्ण करते थे, उनको इस कॉलेज के अध्यापन के लिए रखकर बाकी को फतह हाई स्कूल भेज दिया। गोपीनाथ जी पूर्व की भांति इसी कॉलेज में रहे।
स्वतंत्रता प्राप्ति तक आते-आते गोपीनाथजी की ख्याति इतिहासविद के रूप में हो चुकी थी। उनकी इस विद्वत्ता के कारण राजस्थान विश्वविद्यालय ने इन्हें सन् 1954 में “बोर्ड ऑफ स्टडीज इन हिस्ट्री एण्ड आर्कोलोजी” में सदस्य नियुक्त किया , उनकी इस बोर्ड में 1955 तक सदस्यता रही। सन् 1951 तक वे इस बोर्ड के संयोजक रहे। इसके अतिरिक्त वे भाषा, सामाजिक ज्ञान, अनुवाद, कला संकाय तथा एकेडेमिक कांउंसिल के भी सदस्य रहे।
अध्यापन कार्य करते हुए उन्हें इतिहास में शोध करने की इच्छा हुई। आजीविका की दृष्टि से उन्हें अब कोई चिन्ता नहीं थी। डा. आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव के मार्गदर्शन में “मेवाड़ एण्ड मुगल एम्परर्स” विषय पर शोध प्रारम्भ किया । इसमें उन्होंने महाराणा सांगा से लेकर राजसिंह तक के इतिहास के उन पक्षों को विद्वानों के समक्ष लाकर रखा जो पहले कभी नहीं आये थे। सन् 1951 में उन्हें डाक्टरेट की उपाधि से विभूषित किया गया। शोध अमूल्य था अत: राजस्थान विश्वविद्यालय ने इसके प्रकाशन के लिये 1500 रू. का अनुदान देकर इसे प्रकाशित करवाया। पुस्तक के प्रकाशन के पश्चात् इस शोधग्रंथ की न केवल इतिहासविदों, समालोचकों और विद्वानों ने प्रशंसा की अपितु उस समय की पत्र-पत्रिकाओं ने भी इस ग्रंथ की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

`मेवाड़ एण्ड मुगल एम्परर्स’ इस शोध ग्रंथ ने डा. गोपीनाथ शर्मा को इतिहास के क्षेत्र में प्रसिद्ध इतिहासकारों की पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया। इसी प्रसिद्धि के कारण जोधपुर में इतिहास के अध्यक्ष श्री हेमराज जी के सेवानिवृत होने पर डा. गोपीनाथ शर्मा को पदोन्नत कर जोधपुर स्थानान्तारित किया गया। यह पदोन्नति प्रारंभ में अस्थायी तौर पर की गई। बाद में राजस्थान लोकसेवा आयोग के माध्यम से चयनित होकर स्थायी रूप से पोस्ट- ग्रेजुएट प्रोफेसर के रूप में आपने कार्य भार संभाला।
डूंगरपुर-बांसवाड़ा का प्रश्न :- सन् 1953-54 में भारत के राज्यों के पुनर्गठन के बारे में वार्ताएं चल रही थी। कौन सा भू भाग किस प्रदेश का अंग बने इसका मानचित्रों पर रेखांकन किया जा रहा था। गुजरात राज्य ने डूंगरपुर, बांसवाड़ा, उदयपुर जिले का दक्षिणी भाग, सिरोही, आबू तथा जालोर को अपने राज्य में मिलाने दावा प्रस्तुत किया। गुजरात राज्य ने इस कार्य को सम्पादित करने के लिए डा. मजूमदार जैसे इतिहासविद् को आमंत्रित करके उन्हें कार्य सौंपा। राजस्थान राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मोहनलाल सुखाड़िया जी की पैनी दृष्टि ने डा. गोपीनाथ जी की योग्यता को पहिचान लिया था अत: यह कार्य राज्य सरकार ने डा. शर्मा को दिया।

कार्य दुस्साध्य था पर असम्भव नहीं। चुनौती पूर्ण कार्य के लिए तो वे सदा तत्पर रहते थे। गुजरात ने यह लिखा था कि राजनैतिक दृष्टि से यह भाग राजस्थान पूर्व में अंग रहा हो पर सांस्कृतिक दृष्टि से यह भू भाग गुजरात का ही अंग होना चाहिये। इन क्षेत्रों के दस्तावेजों, शिलालेखों व अन्य स्रोतों की खोज के लिये इन्हें कई दिनों तक जोधपुर के बाहर रहना पड़ता था। पत्नी और बच्चों को अपने कार्य की सिद्धि के लिये कष्ट देना उन्हें अखरता था, पर आवश्यक होने के कारण यह उन्हें करना पड़ता था। अपनी पत्नी से इस कठिनाई के बारे में वे चर्चा करते तो उनकी पत्नी सान्त्वना भरे शब्दों में कहती- “आप जो भी करते हैं सोच समझ कर ही करते हैं। मुझ आप पर पूरा भरोसा है। मुझे आपके इस कार्य से किसी कठिनाई का अनुभव नहीं होता।” यहीं कारण था कि डा. शर्मा अपना कार्य समय पर पूर्ण करने में सफल हुए। उनके सद् प्रयत्नों से डूंगरपुर बांसवाड़ा आदि राजस्थान के ही अंग बने।

डा. शर्मा की कार्य कुशलता और लगन को देखकर पुनर्गठन का कार्य पूर्ण होते ही राजस्थान सरकार ने उन्हें “भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में राजस्थान का योगदान” के तथ्यों को संकलित करने के लिये अनुंसधान अधिकारी नियुक्त किया। यह भी मात्र तथ्यों को इकट्ठा करने का कार्य नहीं था। स्वतंत्रता के पूर्व विभिन्न रियासतों में आन्दोलन का स्वरूप एक सा नहीं था। कहीं कहीं आन्दोलन ने इसका उग्र रूप धारण कर लिया था। ऐसे विविधतापूर्ण आन्दोलन के विषय को व्यवस्थित व क्रमबद्ध करने का कार्य सरल नहीं था। पर डा. शर्मा ने अथक परिश्रम कर इस कार्य को भी समयावधि में पूर्ण कर दिखाया।

इस समय तक वे भारत के पुरातत्व व इतिहास के विभिन्न संस्थाओं के साथ जुड़ चुके थे। इन संस्थाओं में समय समय पर विभिन्न विषयों पर पत्र वाचन करने के लिये डा. शर्मा को बुलाया जाता रहा। पत्रवाचन, लेखन में उनका विषय मेवाड़ व इतिहास से सम्बन्धित ही रहते थे जिनका प्रकाशन पत्र पत्रिकाओं में समय समय पर होता रहा। राजस्थान सरकार ने उनकी इस रूचि को देखते हुए उन्हें “उदयपुर संभाग के ऐतिहासिक सर्वेक्षण समिति” का सचिव बनाया। यह सर्वेक्षण का कार्य उनकी देखरेख में सन् 1956 तक पूर्ण कर लिया गया। उनके जीवन का हर पल, हर क्षण, हर लेख, हर वार्ता इतिहास के लिये ही थे। इतिहास के मूक शोधन के रूप में लग रहना ही उनके जीवन का उद्देश्य बन गया।

सन् 1954 में शंकर सहाय सक्सेना महाराणा भूपाल कालेज के प्राचार्य बनकर आये। आते ही उन्होंने राजनीति शात्र और इतिहास के विषय को अलग कर इसके दो विभाग बना दिये और इतिहास विभाग के रिक्त हुए पद पर डा. गोपीनाथ शर्मा को बुलवा लिया। डा. शर्मा जोधपुर से स्थानान्तरित होकर उदयपुर आ गये। उदयपुर के आवास के समय उन्होंने डी.िलट करने का निश्चय किया। “मध्ययुगीन राजस्थान का सामाजिक जीवन” यह उनके शोध का विषय था। सन् 1962 तक यह शोध ग्रंथ लिखकर तैयार हो गया। इस शोध कार्य के परीक्षक थे डा. आर.पी. त्रिपाठी जो उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे। यह साक्षात्कार आगरा विश्वविद्यालय के सीनेट हाल में हुआ। उस समय साक्षात्कार खुला होता था कोई भी आकर प्रश्नोत्तर सुन सकता था। दर्शकों को प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं था। इस साक्षात्कार में डा. शर्मा के परम मित्र व्रजराज चौहान भी आगरा आये थे। साक्षात्कार सुरूचिपूर्ण और प्रभावी रहा। डा. शर्मा को डी.िलट की उपाधि प्रदान की गई। इस साक्षात्कार से चौहान साहब इतने प्रसन्न हुए कि उनको इस खुशी में उन्होंने वहीं `ताजमहल का संगमरमर का माडल’ स्मति चिन्ह के रूप में भेंट किया। कैसे थे वे मित्रता के मधुर क्षण।

डी.िलट की उपाधि ग्रहण करने पर राजस्थान विश्वविद्यालय ने डा. गोपीनाथ शर्मा को जयपुर में रीडर के पद के लिये चयनित किया। यहां उन्होंने राजस्थान हिस्ट्री कांग्रेस की स्थापना की जिसका प्रथम अधिवेशन जोधपुर में हुआ। इसमें इतिहासविद् डा. मथुरालाल शर्मा, डा. दशरथ शर्मा, उपकुलपति डा. पाण्डे, डा. खडगावत (पुरा लेखाधिकारी) तथा डा. गोपीनाथ शर्मा सम्मिलित हुए। इसमें डा. गोपीनाथ शर्मा को सचिव चुना गया जिसे उन्होंने चार वर्ष तक निभाया अजमेर के अधिवेशन में उन्हें अध्यक्ष चुना गया। इस प्रकार से उनके प्रयासों से यह इतिहास कांग्रेस फलने फूलने लगी।

रीडर के पद पर कार्य करते हुए लगा कि उनकी योग्यता के आधार पर उन्हें रीडर नहीं प्रोफेसर होना चाहिये अतः एक प्रार्थना पत्र उन्होंने उपकुलपति भटनागर के नाम लिखा। उपकुलपति भी उनके मत से सहमत थे अतः यह बात उन्होंने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को लिखी। उन्होंने लिख भेजा कि किसी का किसी पद के लिये चयन `चयन प्रक्रिया’ के माध्यम से किया जाता है। उपकुलपति उन्हें प्रोफेसर देखना चाहते थे अतः उन्होंने उनसे उनकी सारी रचनाएं मांगी। उन रचनाओं को उन्होंने दो भारत के तथा एक विदेश के विशेषज्ञों को टिप्पणी के लिये लिख भेजा। तीनों विशेषज्ञों ने एक राय दी कि जिनकी भी ये रचनाएं हैं उन्हें तो पहले से ही प्रोफेसर हो जाना चाहिये था। इस आधार पर उपकुलपति ने उनको प्रोफेसर के पद पर नियुक्त कर दिया।

उनके कार्यों को देखते हुए उन्हें 60 वर्ष में सेवानिवृत्त नहीं किया गया। उन्हें पहले तीन वर्ष के लिये और फिर दो वर्ष के लिये सेवा करने का अवसर प्रदान किया गया। ऐसाआदेश प्राप्त करने वाले ये प्रथम और अन्तिम व्यक्ति थे। 65 की अवस्था में जब वे सेवानिवृत्त होने लगे तो वि.िव. अनुदान आयोग ने इनकी योग्यता और अनुभव का शिक्षा जगत को लाभ देने के लिये एमरेटस प्रोफेसर के रूप में कार्य करने के आदेश दिये। इस प्रकार प्रत्यक्ष रूप से 71 वर्ष तक अध्यापन से जुड़े रहे। बाद में विद्यालय ने इन्हें `राजस्थान स्टडी सेन्टर’ के मानद निदेशक के रूप में नियुक्त किया जिसे वे अन्तिम समय तक निभाते रहे। डा. मथुरालाल शर्मा के निधन के पश्चात इन्हें `इन्स्टीट्यूट आफ हिस्टोरीकल रिसर्च’ में भी निदेशक बनाया गया। इस प्रकार भारत की कई संस्थाओं के साथ डा. गोपीनाथ जुड़े थे और अन्तिम सांस तक अपनी सेवाएं देते रहे।

आपने इतिहास से सम्बधित 25 ग्रंथों की रचना की। महाराणा फतहसिंह के `बहिडे’ नामक पुस्तकों का सम्पादन किया, 100 से अधिक लेख भारत की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में छपे। लगभग 25 शोधकर्त्ता आपके मार्गदर्शन में `डाक्टरेट’ कर चुके है। विभिन्न विश्व विद्यालयों से सम्बन्धित शोध छात्र-छात्राएं भी आपसे मार्गदर्शन लेते रहे। संसार के बड़े-बड़े विद्वानों ने मेवाड़ के इतिहास, संस्कृति, सामाजिक जीवन, कला आदि का मार्गदर्शन प्राप्त किया। अपनी उत्कृष्ट सेवाओं के लिये आपको कई संस्थाओं ने आपका सम्मान किया। इन्हें कुम्भा पुरस्कार, कविराज श्यामलदास पुरस्कार, नाहर सम्मान पुरस्कार आदि से सम्मानित किया गया। सन् 1982 में भारत सरकार के दिल्ली मंत्रालय के डायरेक्टर जनरल, एन.सी.सी. द्वारा पदक प्रदान किया गया।

डा. गोपीनाथ शर्मा

 

राजस्थान का शौर्यपूर्ण इतिहास


देश (भारत) की आजादी के पूर्व राजस्थान १९ देशी रियासतों में बंटा था, जिसमें अजमेर केन्द्रशासित प्रदेश था। इन रियासतों में उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ और शाहपुरा में गुहिल, जोधपुर, बीकानेर और किशनगढ़ में राठौड़ कोटा और बूंदी में हाड़ा चौहान, सिरोही में देवड़ा चौहान, जयपुर और अलवर में कछवाहा, जैसलमेर और करौली में यदुवंशी एवं झालावाड़ में झाला राजपूत राज्य करते थे। टोंक में मुसलमानों एवं भरतपुर तथा धौलपुर में जाटों का राज्य था। इनके अलावा कुशलगढ़ और लावा की चीफशिप थी। कुशलगढ़ का क्षेत्रफल ३४० वर्ग मील था। वहां के शासक राठौड़ थे। लावा का क्षेत्रफल केवल २० वर्ग मील था। वहां के शासक नारुका थे।

राजस्थान के शौर्य का वर्णन करते हुए सुप्रसिद्ध इतिहाससार कर्नल टॉड ने अपने ग्रंथ ""अनाल्स एण्ड अन्टीक्कीटीज आॅफ राजस्थान'' में कहा है, ""राजस्थान में ऐसा कोई राज्य नहीं जिसकी अपनी थर्मोपली न हो और ऐसा कोई नगर नहीं, जिसने अपना लियोजन डास पैदा नहीं किया हौ।'' टॉड का यह कथन न केवल प्राचीन और मध्ययुग में वरन् आधुनिक काल में भी इतिहास की कसौटी पर खरा उतरा है। ८वीं शताब्दी में जालौर में प्रतिहार और मेवाड़ के गहलोत अरब आक्रमण की बाढ़ को न रोकते तो सारे भारत में अरबों की तूती बोलती न आती। मेवाड़ के रावल जैतसिंह ने सन् १२३४ में दिल्ला के सुल्तान इल्तुतमिश और सन् १२३७ में सुल्तान बलबन को करारी हार देकर अपनी अपनी स्वतंत्रता की रक्षी की। सन् १३०३ में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने एक विशान सेना के साथ मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर हमला किया। चित्तौड़ के इस प्रथम शाके हजारों वीर वीरांगनाओं ने मातृभूमि की रक्षा हेतु अपने आपको न्यौछावर कर दिया, पर खिलजी किले पर अधिकार करने में सफल हो गए। इस हार का बदला सन् १३२६ में राणा हमीर ने चुकाया, जबकि उसने खिलजी के नुमाइन्दे मालदेव चौहान और दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद तुगलक की विशाल सेना को हराकर चित्तौड़ पर पुन: मेवाड़ की पताका फहराई।
१५वीं शताब्दी के मध्य में मेवाड़ का राणा कुम्भा उत्तरी भारत में एक प्रचण्ड शक्ति के रुप में उभरा। उसने गुजरात, मालवा, नागौर के सुल्तान को अलग-अलग और संयुक्त रुप से हराया। सन् १५०८ में राणा सांगा ने मेवाड़ की बागडोर संभाली। सांगा बड़ा महत्वाकांक्षी था। वह दिल्ली में अपनी पताका फहराना चाहता था। समूचे राजस्थान पर अपना वर्च स्थापित करने के बाद उसने दिल्ली, गुजरात और मालवा के सुल्तानों को संयुक्त रुप से हराया। सन् १५२६ में फरगाना के शासक उमर शेख मिर्जा के पुत्र बाबर ने पानीपत के मैदान में सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराकर दिल्ली पर अधिकर कर लिया। सांगा को विश्वास था कि बाबर भी अपने पूर्वज तैमूरलंग की भांति लूट-खसोट कर अपने वतन लौट जाएगा, पर सांगा का अनुमार गलत साबित हुआ। यही नहीं, बाबर सांगा से मुकाबला करने के लिए आगरा से रवाना हुआ। सांगा ने भी समूचे राजस्थान की सेना के साथ आगरा की ओर कूच किया। बाबर और सांगा की पहली भिडन्त बयाना के निकट हुई। बाबर की सेना भाग खड़ी हुई। बाबर ने सांगा से सुलह करनी चाही, पर सांगा आगे बढ़ताही गया। तारीख १७ मार्च, १५२७ को खानवा के मैदान में दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ। मुगल सेना के एक बार तो छक्के छूट गए। किंतु इसी बीच दुर्भाग्य से सांगा के सिर पर एक तीर आकर लगा जिससे वह मूर्छित होकर गिर पड़ा। उसे युद्ध क्षेत्र से हटा कर बसवा ले जाया गया। इस दुर्घटना के साथ ही लड़ाई का पासा पलट गया, बाबर विजयी हुआ। वह भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डालने में सफल हुआ, स्पष्ट है कि मुगल साम्राज्य की स्थापना में पानीपत का नहीं वरन् खानवा का युद्ध निर्णायक था।
खानवा के युद्ध ने मेवाड़ की कमर तोड़ दी। यही नहीं वह वर्षो तक ग्रह कलह का शिकार बना रहा। अब राजस्थान का नेतृत्व मेवाड़ शिशोदियों के हाथ से निकल कर मारवाड़ के राठौड़ मालदेव के हाथ में चला गया। मालदेव सन् १५५३ में मारवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसने मारवाड़ राज्य का भारी विस्तार किया। इस समय शेरशाह सूरी ने बाबर के उत्तराधिकारी हुमायूं को हराकर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। शेरशाह ने राजस्थान में मालदेव की बढ़ती हुई शक्ति देखकर मारवाड़ के निकट सुमेल गांव में शेरशाह की सेना के ऐसे दाँत खट्टे किये कि एक बार तो शेरशाह का हौसला पस्त हो गया। परन्तु अन्त में शेरशाह छल-कपट से जीत गया। फिर भी मारवाड़ से लौटते हुए यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा - ""खैर हुई वरना मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैं हिन्दुस्तान की सल्तनत खो देता।''
सन् १५५५ में हुमायूं ने दिल्ली पर पुन: अधिकार कर लिया। पर वह अगले ही वर्ष मर गया। उसके स्थान पर अकबर बादशाह बना। उसने मारवाड़ पर आक्रमण कर अजमेर, जैतारण, मेड़ता आदि इलाके छीन लिए। मालदेव स्वयं १५६२ में मर गया। उसकी मृत्यु के पश्चात् मारवाड़ का सितारा अस्त हो गया। सन् १५८७ में मालदेव के पुत्र मौटा राजा उदयसिंह ने अपनी लड़की मानाबाई का विवाह शहजादे सलीम से कर अपने आपको पूर्णरुप से मुगल साम्राज्य को समर्पित कर दिया। आमेर के कछवाहा, बीकानेर के राठौड़, जैसलमेर के भाटी, बूंदी के हाड़ा, सिरोही के देवड़ा और अन्य छोटे राज्य इससे पूर्व ही मुगलों की अधीनता स्वीकार कर चुके थे।
अकबर की भारत विजय में केवल मेवाड़ का राणा प्रताप बाधक बना रहा। अकबर ने सन् १५७६ से १५८६ तक पूरी शक्ति के साथ मेवाड़ पर कई आक्रमण किए, पर उसका राणा प्रताप को अधीन करने का मनोरथ सिद्ध नहीं हुआ स्वयं अकबर प्रताप की देश-भक्ति और दिलेरी से इतना प्रभावित हुआ कि प्रताप के मरने पर उसकी आँखों में आंसू भर आये। उसने स्वीकार किया कि विजय निश्चय ही गहलोत राणा की हुई। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि देश के स्वतंत्रता संग्राम में प्रताप जैसे नर-पुंगवों के जीवन से ही प्रेरणा प्राप्त कर अनेक देशभक्त हँसते-हँसते बलिवेदी पर चढ़ गए।
महाराणा प्रताप की मृत्यु पर उसके उत्तराधिकारी अमर सिहं ने मुगल सम्राट जहांगीर से संधि कर ली। उसने अपने पाटवी पुत्र को मुगल दरबार में भेजना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार १०० वर्ष बाद मेवाड़ की स्वतंत्रता का भी अन्त हुआ। मुगल काल में जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, और राजस्थान के अन्य राजाओं ने मुगलों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर मुगल साम्राज्यों के विस्तार और रक्षा में महत्वपूर्ण भाग अदा किया। साम्राज्य की उत्कृष्ट सेवाओं के फलस्वरुप उन्होंने मुगल दरबार में बड़े-बड़े औहदें, जागीरें और सम्मान प्राप्त किये।
राहुल तनेगारिया

राजस्थान का इतिहास

  • आजादी के पूर्व राजस्थान 19 देशी रियासतों में बंटा था, जिसमें अजमेर केन्द्रशासित प्रदेश था। इन रियासतों में उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ और शाहपुरा में गुहिल, जोधपुर, बीकानेर और किशनगढ़ में राठौड़ कोटा और बूंदी में हाड़ा चौहान, सिरोही में देवड़ा चौहान, जयपुर और अलवर में कछवाहा, जैसलमेर और करौली में यदुवंशी एवं झालावाड़ में झाला राजपूत राज्य करते थे। टोंक में मुसलमानों एवं भरतपुर तथा धौलपुर में जाटों का राज्य था। इनके अलावा कुशलगढ़ और लावा की चीफशिप थी। कुशलगढ़ का क्षेत्रफल 340 वर्ग मील था। वहां के शासक राठौड़ थे। लावा का क्षेत्रफल केवल 20 वर्ग मील था। वहां के शासक नारुका थे।


  •  8वीं शताब्दी में जालौर में प्रतिहार और मेवाड़ के गहलोत अरब आक्रमण की बाढ़ को न रोकते तो सारे भारत में अरबों की तूती बोलती न आती। मेवाड़ के रावल जैतसिंह ने सन् 1234 में दिल्ला के सुल्तान इल्तुतमिश और सन् 1237 में सुल्तान बलबन को करारी हार देकर अपनी अपनी स्वतंत्रता की रक्षी की। सन् 1303 में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने एक विशान सेना के साथ मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर हमला किया। चित्तौड़ के इस प्रथम शाके हजारों वीर वीरांगनाओं ने मातृभूमि की रक्षा हेतु अपने आपको न्यौछावर कर दिया, पर खिलजी किले पर अधिकार करने में सफल हो गए। इस हार का बदला सन् 1326 में राणा हमीर ने चुकाया, जबकि उसने खिलजी के नुमाइन्दे मालदेव चौहान और दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद तुगलक की विशाल सेना को हराकर चित्तौड़ पर पुन: मेवाड़ की पताका फहराई।


  • 15वीं शताब्दी के मध्य में मेवाड़ का राणा कुम्भा उत्तरी भारत में एक प्रचण्ड शक्ति के रुप में उभरा। उसने गुजरात, मालवा, नागौर के सुल्तान को अलग-अलग और संयुक्त रुप से हराया। सन् 1508 में राणा सांगा ने मेवाड़ की बागडोर संभाली। सांगा बड़ा महत्वाकांक्षी था। वह दिल्ली में अपनी पताका फहराना चाहता था। समूचे राजस्थान पर अपना वर्च स्थापित करने के बाद उसने दिल्ली, गुजरात और मालवा के सुल्तानों को संयुक्त रुप से हराया। सन् 1526 में फरगाना के शासक उमर शेख मिर्जा के पुत्र बाबर ने पानीपत के मैदान में सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराकर दिल्ली पर अधिकर कर लिया। सांगा को विश्वास था कि बाबर भी अपने पूर्वज तैमूरलंग की भांति लूट-खसोट कर अपने वतन लौट जाएगा, पर सांगा का अनुमार गलत साबित हुआ। यही नहीं, बाबर सांगा से मुकाबला करने के लिए आगरा से रवाना हुआ। सांगा ने भी समूचे राजस्थान की सेना के साथ आगरा की ओर कूच किया। बाबर और सांगा की पहली भिडन्त बयाना के निकट हुई। बाबर की सेना भाग खड़ी हुई। बाबर ने सांगा से सुलह करनी चाही, पर सांगा आगे बढ़ताही गया। तारीख 17 मार्च, 1527 को खानवा के मैदान में दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ। मुगल सेना के एक बार तो छक्के छूट गए। किंतु इसी बीच दुर्भाग्य से सांगा के सिर पर एक तीर आकर लगा जिससे वह मूर्छित होकर गिर पड़ा। उसे युद्ध क्षेत्र से हटा कर बसवा ले जाया गया। इस दुर्घटना के साथ ही लड़ाई का पासा पलट गया, बाबर विजयी हुआ। वह भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डालने में सफल हुआ, स्पष्ट है कि मुगल साम्राज्य की स्थापना में पानीपत का नहीं वरन् खानवा का युद्ध निर्णायक था।


  • खानवा के युद्ध ने मेवाड़ की कमर तोड़ दी। यही नहीं वह वर्षो तक ग्रह कलह का शिकार बना रहा। अब राजस्थान का नेतृत्व मेवाड़ शिशोदियों के हाथ से निकल कर मारवाड़ के राठौड़ मालदेव के हाथ में चला गया। मालदेव सन् 1553 में मारवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसने मारवाड़ राज्य का भारी विस्तार किया। इस समय शेरशाह सूरी ने बाबर के उत्तराधिकारी हुमायूं को हराकर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। शेरशाह ने राजस्थान में मालदेव की बढ़ती हुई शक्ति देखकर मारवाड़ के निकट सुमेल गांव में शेरशाह की सेना के ऐसे दाँत खट्टे किये कि एक बार तो शेरशाह का हौसला पस्त हो गया। परन्तु अन्त में शेरशाह छल-कपट से जीत गया। 


  • सन् 1555 में हुमायूं ने दिल्ली पर पुन: अधिकार कर लिया। पर वह अगले ही वर्ष मर गया। उसके स्थान पर अकबर बादशाह बना। उसने मारवाड़ पर आक्रमण कर अजमेर, जैतारण, मेड़ता आदि इलाके छीन लिए। मालदेव स्वयं 1562 में मर गया। उसकी मृत्यु के पश्चात् मारवाड़ का सितारा अस्त हो गया। सन् 1587 में मालदेव के पुत्र मौटा राजा उदयसिंह ने अपनी लड़की मानाबाई का विवाह शहजादे सलीम से कर अपने आपको पूर्णरुप से मुगल साम्राज्य को समर्पित कर दिया। आमेर के कछवाहा, बीकानेर के राठौड़, जैसलमेर के भाटी, बूंदी के हाड़ा, सिरोही के देवड़ा और अन्य छोटे राज्य इससे पूर्व ही मुगलों की अधीनता स्वीकार कर चुके थे।


  • अकबर की भारत विजय में केवल मेवाड़ का राणा प्रताप बाधक बना रहा। अकबर ने सन् 1576 से 1586 तक पूरी शक्ति के साथ मेवाड़ पर कई आक्रमण किए, पर उसका राणा प्रताप को अधीन करने का मनोरथ सिद्ध नहीं हुआ स्वयं अकबर प्रताप की देश-भक्ति और दिलेरी से इतना प्रभावित हुआ कि प्रताप के मरने पर उसकी आँखों में आंसू भर आये। उसने स्वीकार किया कि विजय निश्चय ही गहलोत राणा की हुई। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि देश के स्वतंत्रता संग्राम में प्रताप  जैसे नर-पुंगवों के जीवन से ही प्रेरणा प्राप्त कर अनेक देशभक्त हँसते-हँसते बलिवेदी पर चढ़ गए।


  • महाराणा प्रताप की मृत्यु पर उसके उत्तराधिकारी अमर सिहं ने मुगल सम्राट जहांगीर से संधि कर ली। उसने अपने पाटवी पुत्र को मुगल दरबार में भेजना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार 100 वर्ष बाद मेवाड़ की स्वतंत्रता का भी अन्त हुआ। मुगल काल में जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, और राजस्थान के अन्य राजाओं ने मुगलों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर मुगल साम्राज्यों के विस्तार और रक्षा में महत्वपूर्ण भाग अदा किया। साम्राज्य की उत्कृष्ट सेवाओं के फलस्वरुप उन्होंने मुगल दरबार में बड़े-बड़े औहदें, जागीरें और सम्मान प्राप्त किये।


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