राजस्थान मे प्रमुख इतिहासकार

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शारीरिक पुष्टता कम थी, प्रवास का कार्य कठिन था। कोई दूसरा विकल्प न होने के कारण गोपीनाथ को यह कार्य न चाहते हुए भी करना पड़ा। निरीक्षण का क्षेत्र विस्तृत था- भीलवाड़ा, चित्तौड़ व उदयपुर। इस प्रवास में उन्हें ऐतिहासिक व धार्मिक स्थल देखने का अवसर प्राप्त हुआ। यहां के जनजीवन, यहां की प्रकृति, लोगों की आर्थिक स्थिति, तीज त्योहार, खेती आदि को नजदीक से उन्होंने देखा। अब उन्हें इनके बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने की इच्छा हुई। जिस प्रवास पर प्रारम्भ में जाने से भय लगता था वह अब उनके जिज्ञासा का कारण बन गया। उनकी यह इच्छा तीव्रतर होती गई। बाद में उन्होंने यह निश्चय किया कि वे एम.ए. की परीक्षा इतिहास में देंगे। उस समय आगरा विश्वविद्यालय से स्वयंपाठी के रूप में परीक्षा देने की व्यवस्था थी। इतिहास की पुस्तकें उन्होंने “इम्पीरियल लाइब्रेरी कलकत्ता” के सदस्य बनकर प्राप्त कर लीं। ये पुस्तकें उन्हें एक माह के लिये ही मिलती थी। सन् 1937 में उन्होंने एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। दण्ड स्वरूप दी गई नियुक्ति गोपीनाथ के लिये वरदान सिद्ध हुई। एम.ए. करते ही उन्हें लम्बरदार हाई स्कूल, जो उस समय कृषि महाविद्यालय के पुराने भवन में था, के उप प्रधानाध्यापक पद पर नियुक्ति मिल गई। यहां उन्होंने दो वर्ष काम किया। उस समय मेवाड़ राज्य के शिक्षामंत्री रतिलाल अंतानी का पुत्र विनोद अंतानी एम.बी. कॉलेज में अध्यापन कार्य कर रहा था। उसके विदेश चले जाने पर उस रिक्त पद पर 40 रू. मूल वेतन व 35 रू. भत्ते के मासिक वेतन पर उनकी एम.बी. कॉलेज में नियुक्ति हो गई।


उस समय एक रोचक घटना घटी । उत्तरप्रदेश के राज्यपाल की सिफारिश पर श्री चण्डीप्रसाद को इतिहास के प्राध्यापक के रूप में चयनित किया गया। परिणामस्वरूप गोपीनाथ को लिपिक का कार्य करना पड़ा। उन्हें केवल एक कालांश इतिहास पढ़ाने का अवसर मिलता था। समय बीता। निदेशक महोदय ने चण्डी प्रसाद से उनके प्रमाणपत्र मांगे। पहले तो उसने आनाकानी की, बाद में दबाव डालने पर उसने स्पष्ट बताया कि उसने इतिहास संबंधित कोई परीक्षा उत्तीर्ण नहीं की है। यह पूछे जाने पर कि “वह इतिहास का अध्यापन कैसे करता था” उसने बताया कि “वह गोपीनाथ से पढ़कर पढ़ाता था। वे यह जानते थे कि मेरे (चण्डीप्रसाद के) यहां रहने पर वे (गोपीनाथ) कभी प्राध्यापक नहीं बन सकते फिर भी उन्होंने मुझे पढ़ाया। वे भले और उदार प्राणी है और वे ही इस पद के लिये योग्य व्यक्ति है।” बाद में गोपीनाथ को प्राध्यापक के पद पर स्थायी तौर पर 100 रू. के मासिक वेतन पर नियुक्ति मिल गई।

एक बार एम.बी. कॉलेज में एक अंग्रेज निरीक्षक निरीक्षण करने आये। निरीक्षक जब गोपीनाथ जी के कक्ष में निरीक्षण करने आये तो वे नागरिक शात्र (उस समय नागरिक शात्र इतिहास का ही अंग माना जाता था।) में नागरिकों के मौलिक अधिकार पढ़ा रहे थे। वे 20 मिनट तक कक्षा में बैठे । निरीक्षण की समाप्ति पर मेवाड़ के शिक्षा मंत्री से भेंट के समय उन्होंने गोपीनाथजी के अध्यापन की तो प्रशंसा की पर इतिहास से नागरिक शात्र हटाने की बात कही। निरीक्षण के बाद गोपीनाथजी को बुलाया गया तो उनके मन में यह शंका रही कि उनके अध्यापन में कमी रह गई है। मिलने पर सारी बात जान लेने पर गोपीनाथ जी ने शिक्षा मंत्री को समझाया कि किसी विषय को हटाना या लगाना किसी प्राध्यापक का काम नहीं है यह तो बोर्ड ही कर सकता है। उनकी इस निर्भीकता से शिक्षा मंत्री बड़े प्रभावित हुए।
इतिहास में ख्याति बढ़ने के साथ ही राज्य सरकार ने उन्हें सन् 1944 में “मेवाड़ में ऐतिहासिक दस्तावेज की संभागीय समिति” के सचिव के पद पर नियुक्त किया। प्राध्यापक का कार्य करते हुए उन्होंने तीन वर्ष तक यह कार्य सम्भाला। समय की बचत करने के लिये इस समय गोपीनाथ जी ने साईकिल सीखी।

शिक्षा में प्रसार के कारण एम.बी. कॉलेज में छात्रों की संख्या बढ़ती जा रही थी। उचित अवसर जानकर राज्य सरकार ने इस कॉलेज को क्रमोन्नत कर दिया। इस डिग्री कॉलेज के प्रथम प्राचार्य बने डा. बसु, जो एक कुशल प्रशासक थे। उन्होंने आते ही अध्यापकों की योग्यता को देखकर छंटनी की। कॉलेज के लिये 7 प्राध्यापक ही अपनी योग्यता पूर्ण करते थे, उनको इस कॉलेज के अध्यापन के लिए रखकर बाकी को फतह हाई स्कूल भेज दिया। गोपीनाथ जी पूर्व की भांति इसी कॉलेज में रहे।
स्वतंत्रता प्राप्ति तक आते-आते गोपीनाथजी की ख्याति इतिहासविद के रूप में हो चुकी थी। उनकी इस विद्वत्ता के कारण राजस्थान विश्वविद्यालय ने इन्हें सन् 1954 में “बोर्ड ऑफ स्टडीज इन हिस्ट्री एण्ड आर्कोलोजी” में सदस्य नियुक्त किया , उनकी इस बोर्ड में 1955 तक सदस्यता रही। सन् 1951 तक वे इस बोर्ड के संयोजक रहे। इसके अतिरिक्त वे भाषा, सामाजिक ज्ञान, अनुवाद, कला संकाय तथा एकेडेमिक कांउंसिल के भी सदस्य रहे।
अध्यापन कार्य करते हुए उन्हें इतिहास में शोध करने की इच्छा हुई। आजीविका की दृष्टि से उन्हें अब कोई चिन्ता नहीं थी। डा. आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव के मार्गदर्शन में “मेवाड़ एण्ड मुगल एम्परर्स” विषय पर शोध प्रारम्भ किया । इसमें उन्होंने महाराणा सांगा से लेकर राजसिंह तक के इतिहास के उन पक्षों को विद्वानों के समक्ष लाकर रखा जो पहले कभी नहीं आये थे। सन् 1951 में उन्हें डाक्टरेट की उपाधि से विभूषित किया गया। शोध अमूल्य था अत: राजस्थान विश्वविद्यालय ने इसके प्रकाशन के लिये 1500 रू. का अनुदान देकर इसे प्रकाशित करवाया। पुस्तक के प्रकाशन के पश्चात् इस शोधग्रंथ की न केवल इतिहासविदों, समालोचकों और विद्वानों ने प्रशंसा की अपितु उस समय की पत्र-पत्रिकाओं ने भी इस ग्रंथ की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

`मेवाड़ एण्ड मुगल एम्परर्स’ इस शोध ग्रंथ ने डा. गोपीनाथ शर्मा को इतिहास के क्षेत्र में प्रसिद्ध इतिहासकारों की पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया। इसी प्रसिद्धि के कारण जोधपुर में इतिहास के अध्यक्ष श्री हेमराज जी के सेवानिवृत होने पर डा. गोपीनाथ शर्मा को पदोन्नत कर जोधपुर स्थानान्तारित किया गया। यह पदोन्नति प्रारंभ में अस्थायी तौर पर की गई। बाद में राजस्थान लोकसेवा आयोग के माध्यम से चयनित होकर स्थायी रूप से पोस्ट- ग्रेजुएट प्रोफेसर के रूप में आपने कार्य भार संभाला।
डूंगरपुर-बांसवाड़ा का प्रश्न :- सन् 1953-54 में भारत के राज्यों के पुनर्गठन के बारे में वार्ताएं चल रही थी। कौन सा भू भाग किस प्रदेश का अंग बने इसका मानचित्रों पर रेखांकन किया जा रहा था। गुजरात राज्य ने डूंगरपुर, बांसवाड़ा, उदयपुर जिले का दक्षिणी भाग, सिरोही, आबू तथा जालोर को अपने राज्य में मिलाने दावा प्रस्तुत किया। गुजरात राज्य ने इस कार्य को सम्पादित करने के लिए डा. मजूमदार जैसे इतिहासविद् को आमंत्रित करके उन्हें कार्य सौंपा। राजस्थान राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मोहनलाल सुखाड़िया जी की पैनी दृष्टि ने डा. गोपीनाथ जी की योग्यता को पहिचान लिया था अत: यह कार्य राज्य सरकार ने डा. शर्मा को दिया।

कार्य दुस्साध्य था पर असम्भव नहीं। चुनौती पूर्ण कार्य के लिए तो वे सदा तत्पर रहते थे। गुजरात ने यह लिखा था कि राजनैतिक दृष्टि से यह भाग राजस्थान पूर्व में अंग रहा हो पर सांस्कृतिक दृष्टि से यह भू भाग गुजरात का ही अंग होना चाहिये। इन क्षेत्रों के दस्तावेजों, शिलालेखों व अन्य स्रोतों की खोज के लिये इन्हें कई दिनों तक जोधपुर के बाहर रहना पड़ता था। पत्नी और बच्चों को अपने कार्य की सिद्धि के लिये कष्ट देना उन्हें अखरता था, पर आवश्यक होने के कारण यह उन्हें करना पड़ता था। अपनी पत्नी से इस कठिनाई के बारे में वे चर्चा करते तो उनकी पत्नी सान्त्वना भरे शब्दों में कहती- “आप जो भी करते हैं सोच समझ कर ही करते हैं। मुझ आप पर पूरा भरोसा है। मुझे आपके इस कार्य से किसी कठिनाई का अनुभव नहीं होता।” यहीं कारण था कि डा. शर्मा अपना कार्य समय पर पूर्ण करने में सफल हुए। उनके सद् प्रयत्नों से डूंगरपुर बांसवाड़ा आदि राजस्थान के ही अंग बने।

डा. शर्मा की कार्य कुशलता और लगन को देखकर पुनर्गठन का कार्य पूर्ण होते ही राजस्थान सरकार ने उन्हें “भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में राजस्थान का योगदान” के तथ्यों को संकलित करने के लिये अनुंसधान अधिकारी नियुक्त किया। यह भी मात्र तथ्यों को इकट्ठा करने का कार्य नहीं था। स्वतंत्रता के पूर्व विभिन्न रियासतों में आन्दोलन का स्वरूप एक सा नहीं था। कहीं कहीं आन्दोलन ने इसका उग्र रूप धारण कर लिया था। ऐसे विविधतापूर्ण आन्दोलन के विषय को व्यवस्थित व क्रमबद्ध करने का कार्य सरल नहीं था। पर डा. शर्मा ने अथक परिश्रम कर इस कार्य को भी समयावधि में पूर्ण कर दिखाया।

इस समय तक वे भारत के पुरातत्व व इतिहास के विभिन्न संस्थाओं के साथ जुड़ चुके थे। इन संस्थाओं में समय समय पर विभिन्न विषयों पर पत्र वाचन करने के लिये डा. शर्मा को बुलाया जाता रहा। पत्रवाचन, लेखन में उनका विषय मेवाड़ व इतिहास से सम्बन्धित ही रहते थे जिनका प्रकाशन पत्र पत्रिकाओं में समय समय पर होता रहा। राजस्थान सरकार ने उनकी इस रूचि को देखते हुए उन्हें “उदयपुर संभाग के ऐतिहासिक सर्वेक्षण समिति” का सचिव बनाया। यह सर्वेक्षण का कार्य उनकी देखरेख में सन् 1956 तक पूर्ण कर लिया गया। उनके जीवन का हर पल, हर क्षण, हर लेख, हर वार्ता इतिहास के लिये ही थे। इतिहास के मूक शोधन के रूप में लग रहना ही उनके जीवन का उद्देश्य बन गया।

सन् 1954 में शंकर सहाय सक्सेना महाराणा भूपाल कालेज के प्राचार्य बनकर आये। आते ही उन्होंने राजनीति शात्र और इतिहास के विषय को अलग कर इसके दो विभाग बना दिये और इतिहास विभाग के रिक्त हुए पद पर डा. गोपीनाथ शर्मा को बुलवा लिया। डा. शर्मा जोधपुर से स्थानान्तरित होकर उदयपुर आ गये। उदयपुर के आवास के समय उन्होंने डी.िलट करने का निश्चय किया। “मध्ययुगीन राजस्थान का सामाजिक जीवन” यह उनके शोध का विषय था। सन् 1962 तक यह शोध ग्रंथ लिखकर तैयार हो गया। इस शोध कार्य के परीक्षक थे डा. आर.पी. त्रिपाठी जो उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे। यह साक्षात्कार आगरा विश्वविद्यालय के सीनेट हाल में हुआ। उस समय साक्षात्कार खुला होता था कोई भी आकर प्रश्नोत्तर सुन सकता था। दर्शकों को प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं था। इस साक्षात्कार में डा. शर्मा के परम मित्र व्रजराज चौहान भी आगरा आये थे। साक्षात्कार सुरूचिपूर्ण और प्रभावी रहा। डा. शर्मा को डी.िलट की उपाधि प्रदान की गई। इस साक्षात्कार से चौहान साहब इतने प्रसन्न हुए कि उनको इस खुशी में उन्होंने वहीं `ताजमहल का संगमरमर का माडल’ स्मति चिन्ह के रूप में भेंट किया। कैसे थे वे मित्रता के मधुर क्षण।

डी.िलट की उपाधि ग्रहण करने पर राजस्थान विश्वविद्यालय ने डा. गोपीनाथ शर्मा को जयपुर में रीडर के पद के लिये चयनित किया। यहां उन्होंने राजस्थान हिस्ट्री कांग्रेस की स्थापना की जिसका प्रथम अधिवेशन जोधपुर में हुआ। इसमें इतिहासविद् डा. मथुरालाल शर्मा, डा. दशरथ शर्मा, उपकुलपति डा. पाण्डे, डा. खडगावत (पुरा लेखाधिकारी) तथा डा. गोपीनाथ शर्मा सम्मिलित हुए। इसमें डा. गोपीनाथ शर्मा को सचिव चुना गया जिसे उन्होंने चार वर्ष तक निभाया अजमेर के अधिवेशन में उन्हें अध्यक्ष चुना गया। इस प्रकार से उनके प्रयासों से यह इतिहास कांग्रेस फलने फूलने लगी।

रीडर के पद पर कार्य करते हुए लगा कि उनकी योग्यता के आधार पर उन्हें रीडर नहीं प्रोफेसर होना चाहिये अतः एक प्रार्थना पत्र उन्होंने उपकुलपति भटनागर के नाम लिखा। उपकुलपति भी उनके मत से सहमत थे अतः यह बात उन्होंने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को लिखी। उन्होंने लिख भेजा कि किसी का किसी पद के लिये चयन `चयन प्रक्रिया’ के माध्यम से किया जाता है। उपकुलपति उन्हें प्रोफेसर देखना चाहते थे अतः उन्होंने उनसे उनकी सारी रचनाएं मांगी। उन रचनाओं को उन्होंने दो भारत के तथा एक विदेश के विशेषज्ञों को टिप्पणी के लिये लिख भेजा। तीनों विशेषज्ञों ने एक राय दी कि जिनकी भी ये रचनाएं हैं उन्हें तो पहले से ही प्रोफेसर हो जाना चाहिये था। इस आधार पर उपकुलपति ने उनको प्रोफेसर के पद पर नियुक्त कर दिया।

उनके कार्यों को देखते हुए उन्हें 60 वर्ष में सेवानिवृत्त नहीं किया गया। उन्हें पहले तीन वर्ष के लिये और फिर दो वर्ष के लिये सेवा करने का अवसर प्रदान किया गया। ऐसाआदेश प्राप्त करने वाले ये प्रथम और अन्तिम व्यक्ति थे। 65 की अवस्था में जब वे सेवानिवृत्त होने लगे तो वि.िव. अनुदान आयोग ने इनकी योग्यता और अनुभव का शिक्षा जगत को लाभ देने के लिये एमरेटस प्रोफेसर के रूप में कार्य करने के आदेश दिये। इस प्रकार प्रत्यक्ष रूप से 71 वर्ष तक अध्यापन से जुड़े रहे। बाद में विद्यालय ने इन्हें `राजस्थान स्टडी सेन्टर’ के मानद निदेशक के रूप में नियुक्त किया जिसे वे अन्तिम समय तक निभाते रहे। डा. मथुरालाल शर्मा के निधन के पश्चात इन्हें `इन्स्टीट्यूट आफ हिस्टोरीकल रिसर्च’ में भी निदेशक बनाया गया। इस प्रकार भारत की कई संस्थाओं के साथ डा. गोपीनाथ जुड़े थे और अन्तिम सांस तक अपनी सेवाएं देते रहे।

आपने इतिहास से सम्बधित 25 ग्रंथों की रचना की। महाराणा फतहसिंह के `बहिडे’ नामक पुस्तकों का सम्पादन किया, 100 से अधिक लेख भारत की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में छपे। लगभग 25 शोधकर्त्ता आपके मार्गदर्शन में `डाक्टरेट’ कर चुके है। विभिन्न विश्व विद्यालयों से सम्बन्धित शोध छात्र-छात्राएं भी आपसे मार्गदर्शन लेते रहे। संसार के बड़े-बड़े विद्वानों ने मेवाड़ के इतिहास, संस्कृति, सामाजिक जीवन, कला आदि का मार्गदर्शन प्राप्त किया। अपनी उत्कृष्ट सेवाओं के लिये आपको कई संस्थाओं ने आपका सम्मान किया। इन्हें कुम्भा पुरस्कार, कविराज श्यामलदास पुरस्कार, नाहर सम्मान पुरस्कार आदि से सम्मानित किया गया। सन् 1982 में भारत सरकार के दिल्ली मंत्रालय के डायरेक्टर जनरल, एन.सी.सी. द्वारा पदक प्रदान किया गया।

डा. गोपीनाथ शर्मा

 
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